वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें
देवता: अग्निः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡वा꣢ नो अग्न ऊ꣣ति꣡भि꣢र्गाय꣣त्र꣢स्य꣣ प्र꣡भ꣢र्मणि । वि꣡श्वा꣢सु धी꣣षु꣡ व꣢न्द्य ॥१५२४॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

अवा नो अग्न ऊतिभिर्गायत्रस्य प्रभर्मणि । विश्वासु धीषु वन्द्य ॥१५२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡व꣢꣯ । नः꣣ । अग्ने । ऊति꣡भिः꣢ । गा꣣यत्र꣡स्य꣢ । प्र꣡भ꣢꣯र्मणि । प्र । भ꣣र्मणि । वि꣡श्वा꣢꣯सु । धी꣣षु꣢ । व꣣न्द्य ॥१५२४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1524 | (कौथोम) 7 » 1 » 14 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 4 » 1 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वन्द्य) वन्दनीय (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! आप (गायत्रस्य) गायत्री आदि छन्दों से युक्त वेदज्ञान के (प्रभर्मणि) प्रकृष्ट रूप से ग्रहण करने में और (विश्वासु धीषु) सब कर्मों में (ऊतिभिः) अपनी रक्षाओं के साथ (नः) हमें (अव) प्राप्त होओ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

ज्ञानप्राप्ति के समय और कर्म करते समय जो जगदीश्वर को नहीं भूलते, वे श्रेष्ठ ज्ञान के अनुकूल श्रेष्ठ कर्म ही सदा करते हैं ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ जगदीश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वन्द्य) वन्दनीय (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! त्वम् (गायत्रस्य) गायत्र्यादिच्छन्दोमयस्य वेदज्ञानस्य (प्रभर्मणि) प्रकर्षेण हरणे ग्रहणे, (विश्वासु धीषु) सर्वेषु कर्मसु च (ऊतिभिः) स्वकीयैः रक्षणैः सह (नः) अस्मान् (अव) प्राप्नुहि ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

ज्ञानावाप्तिकाले कर्मकाले च ये जगदीश्वरं न विस्मरन्ति ते श्रेष्ठज्ञानानुकूलं श्रेष्ठं कर्मैव सदा कुर्वन्ति ॥१॥